FDI पर हमारे देश में जो विरोध है वह कोई नया नहीं है। विपक्ष के संसद में बहस के बाद वोटिंग की मांग पर सरकार का कहना है की हर कार्यकारी फैसले पर संसद की राय लेना सविधान के अनुसार जरूरी नही है। परन्तु क्या मामला इतना सीधा है, जितना सरकार दिखाने की कोशिश कर रही है।हमारी सरकार पर बहुत दिन से देशी और विदेशी उद्योगपतियों का दबाव था की सरकार FDI रिटेल में 51% की मंजूरी दे।परन्तु देश के अंदर इसके भारी विरोध को देखते हुए सरकार इसे लागु नहीं कर पा रही थी।पिछली बार सरकार ने जब इसे लागु करने की कोशिश की तो संसद और संसद के बाहर इसका भारी विरोध हुआ।यहाँ तक की सरकार के अंदर शामिल उसके कुछ सहयोगी भी इसके खिलाफ खड़े हो गये।तब सरकार ने संसद में कहा की वो इस फैसले को सभी STAKE HOLDER से बात करने के बाद और एक बड़ी सहमती के बाद ही इसे लागु करेगी। सरकार के इस बयान पर मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी ने विशेष रूप से पूछा की क्या STAKE HOLDERS में पोलिटिकल पार्टियाँ भी शामिल हैं,तो सरकार ने कहा की हाँ इसमें पोलिटिकल पार्टियाँ और राज्य सरकारें दोनों शामिल हैं।
उसके बाद सरकार ने बिना पोलिटिकल पार्टियों और बगैर राज्य सरकारों से बात किये इसे लागु करने का फैसला कर दिया।सरकार ने यह जल्दबाजी अपने आप को आर्थिक सुधारों के और तथाकथित उदारीकरण के तरफदार दिखाने के लिए की।अब सवाल केवल यह नही रह गया है की यह फैसला किसके हित में है या किसके खिलाफ है,बल्कि एक नया सवाल खड़ा हो गया है की क्या सरकार संसद में दिए गये अपने बयान को इस तरह अनदेखा कर सकती है? अगर सरकार इस तरह संसद की उपेक्षा करेगी तो कई समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी।अब सरकार ने किस किस पार्टी से बात की , और किस किस राज्य सरकार से बात की, यह तो संसद में वोटिंग से ही पता चल सकता है।
दूसरी तरफ एक ऐसे फैसले को जिसके विरोध में भारत बंद तक हो चूका है,केवल एक कार्यकारी फैसला कहना देश को गुमराह करने वाली बात है।सरकार संसद में दिए गये अपने बयान से मुकर नही सकती। इस सवाल पर सरकार को संसद में पूरी बहस करवाने के साथ ही वोटिंग भी करवानी चाहिए ताकि पता चल सके की देश का कितना हिस्सा इसके साथ है,और कितना हिस्सा इसके खिलाफ है।और अगर बहुमत इसके खिलाफ होता है तो तुरंत इसे वापिस लेना चाहिए। देश किसी एक पार्टी या कुछ उद्योगपतियों की जायदाद नही है।
उसके बाद सरकार ने बिना पोलिटिकल पार्टियों और बगैर राज्य सरकारों से बात किये इसे लागु करने का फैसला कर दिया।सरकार ने यह जल्दबाजी अपने आप को आर्थिक सुधारों के और तथाकथित उदारीकरण के तरफदार दिखाने के लिए की।अब सवाल केवल यह नही रह गया है की यह फैसला किसके हित में है या किसके खिलाफ है,बल्कि एक नया सवाल खड़ा हो गया है की क्या सरकार संसद में दिए गये अपने बयान को इस तरह अनदेखा कर सकती है? अगर सरकार इस तरह संसद की उपेक्षा करेगी तो कई समस्याएँ खड़ी हो जाएँगी।अब सरकार ने किस किस पार्टी से बात की , और किस किस राज्य सरकार से बात की, यह तो संसद में वोटिंग से ही पता चल सकता है।
दूसरी तरफ एक ऐसे फैसले को जिसके विरोध में भारत बंद तक हो चूका है,केवल एक कार्यकारी फैसला कहना देश को गुमराह करने वाली बात है।सरकार संसद में दिए गये अपने बयान से मुकर नही सकती। इस सवाल पर सरकार को संसद में पूरी बहस करवाने के साथ ही वोटिंग भी करवानी चाहिए ताकि पता चल सके की देश का कितना हिस्सा इसके साथ है,और कितना हिस्सा इसके खिलाफ है।और अगर बहुमत इसके खिलाफ होता है तो तुरंत इसे वापिस लेना चाहिए। देश किसी एक पार्टी या कुछ उद्योगपतियों की जायदाद नही है।
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